गुरुवार, 21 अगस्त 2008

ज़रुरत है हमें

भीग भीग कर इतने सीम गए हैं
कल के सूरज की ज़रूरत है हमें

हर रिशते के खौफ़ से बेखौफ़ सोए हैं
एक पहर की नींद की ज़रूरत है हमें

दर्द के बढ़ने से खुद बेदर्दी हो गए
हरज़ाई के कत्ल की ज़रूरत है हमें

ज़िन्दा लोग कफ़न में ज़माने के सोए हैं
बस मुर्दों को बदलने की ज़रूरत है हमें

अनजाने सफ़र पर अपने निकल गए हैं
इसकी सफ़ल साधना की ज़रूरत है हमें

हाइकु

रक्त का दान
हो जनकल्याण
कर्म महान

दुहाई

ज़मीं आस्मां से पूछती है
मेरे आंचल में सारी कायनाथ रहती है
चांद तो दागी है फिर भी
खूबसूरती की दुहाई
इसी से क्यों दी जाती है

असर

पूछे सुबहे विसाल जब हमारा हाल
पसीने से दुपट्टा भीग जाता है
शमां अंधेरो में जलाते है इसका
असर परवानो पे क्यों आता है

पुकार

कतरा-कतरा दस्ते दु‌आ पे न्यौछावर न होता
जो तेरे शाने का को‌ई हिस्सा हमारा भी होता
हम तो मस्त सरशार थे अपनी ही मस्ती में
यूं बज़्म में बैठाकर तुमने गर पुकारा न होता

मानव

दुनिया की दह्ललीज़ पर
नागफनी सी अभिलाषाएं
लोक लाज के भय से
डरी प्रेम अग्नि की ज्वालाएं
सुवासित हु‌ए उपवन फिर
खुल गयी प्रकृति की आबन्धनाएं
उग्र अराजकता से दुनिया की
क्रन्दन करती आज दिशा‌एं
पांव ठ्हर ग‌ए पथ भूल
अन्तर्मन में, नया कोई नया स्तम्भ बनाएं
युगों-युगों तक गूंजें नभ में
पिछली भूलें फिर न दोहराएं
भरी गोद चट्टानों से धरती की
या पत्थर की प्रतिमाएं
भावों की संचरित कविता से
सुप्त जीवन का तार झंकृत कर
चलो, हम मानव को मानव बना‌एं

बुधवार, 20 अगस्त 2008

इन्तजाम

हर पल तेरी याद का संजो कर रखा है
सूखा फूल गुलाब का किताब में रखा है
निराधार ज़माने में कुछ आधार रखा है
पत्थरों भरी ज़मीं में कोइ भगवान रखा है
महफिलों में जामों का आतिशांदाज रखा है
पीने वालों ने जिसका गंगाजल नाम रखा है
सुरमई शामों में तेरी यादों का हिस्सा रखा है
मुलाकात के वास्ते कोना कोई खाली रखा है
मिलें फिर जुदा हों ऐसे मिलन में क्या ’भारती’
अगले जन्म में मिलन का इन्तजाम रखा है


वाङ्मय हिन्दी साहित्यिक पत्रिका by डा0 फ़िरोज़ अहमद